भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक और प्रमुख नाटककार थे। उनका जन्म वाराणसी में 1850 ई. में हुआ था। उनके पिता गोपाल जी थे जो संस्कृत के एक प्रसिद्ध विद्वान थे। भारतेन्दु ने अपनी शिक्षा संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी भाषा में ली थी।
भारतेन्दु जी को नाटक लेखन में विशेष रुचि थी और उन्होंने हिंदी नाटक को एक नई दिशा दी। उनके द्वारा लिखित प्रमुख नाटक हैं – भारत-दुर्दशा, अंधेरनगरी, भारत-जननी, मुद्राराक्षस आदि। इन नाटकों में उन्होंने समाज की कुरीतियों और भारतीय समाज के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
साथ ही भारतेन्दु जी ने हिन्दी भाषा के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने काव्य, निबंध और नाट्य साहित्य लिखकर हिंदी भाषा को समृद्ध किया। 1868 में उन्होंने वाराणसी से ‘हिन्दी भाषा’ नामक एक पत्रिका भी निकाली थी।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने जीवनकाल में हिंदी साहित्य, नाटक और भाषा के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान दिया है। उनके लिए कहा जाता है कि उन्होंने हिंदी को आधुनिक साहित्य की समृद्ध विरासत प्रदान की। वह निस्संदेह हिंदी के महान साहित्यकार और चिंतक थे।
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जानकारी
नाम | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र |
वास्तविक नाम | वासुदेव |
पेशा | कवि लेखक,रंगकर्मी, देशहितचिन्तक पत्रकार |
किन कारणों से प्रसिद्ध | आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह |
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के व्यक्तित्व और योगदान को दर्शाया है:
विवरण | ब्योरा |
---|---|
पूरा नाम | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र |
जन्म | 1850, बिहार के उत्तरी भाग में |
मृत्यु | 6 जनवरी, 1885 (उम्र लगभग 35 वर्ष) |
महत्वपूर्ण कृतियाँ | भारत-दुर्दशा, प्रेम-पत्र, प्रेम-सागर, अंधेर नगरी आदि |
योगदान | हिन्दी साहित्य के पितामह के रूप में विख्यात<br>हिन्दी नाटक और उपन्यास लेखन की शुरुआत<br>खड़ी बोली हिन्दी का प्रचार-प्रसार |
विशेषताएं | राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत रचनाएं<br>सरल और सहज भाषा शैली<br>समाज सुधार के प्रति समर्पित |
सम्मान/पुरस्कार | काव्य-रत्न की उपाधि प्राप्त |
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखे गए मौलिक नाटकों की सूची दी गई है:
क्रम संख्या | नाटक का नाम | रचना वर्ष |
---|---|---|
1 | भारत-दुर्दशा | 1876 |
2 | मधुरा-विजय | 1878 |
3 | शूद्रकल्याण | 1880 |
4 | कृष्णावतार | 1880 |
5 | नीलदेवी | 1881 |
6 | भारत-जयश्री | 1882 |
7 | आनन्द-रघुनाथ | 1882 |
8 | नल-दमयन्ती | 1883 |
9 | कर्णावतार | 1883 |
10 | चेतावनी | 1884 |
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखे गए ये सभी नाटक हिन्दी नाटक साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनमें से ‘भारत-दुर्दशा’ उनका प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाटक माना जाता है, जिसमें उन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की नींव रखी। इन नाटकों में समकालीन समाज की समस्याओं, धर्म, नैतिकता और राष्ट्रीय चेतना आदि विषयों को समेटा गया है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रमुख निबंध संग्रहों को निम्नलिखित टेबल में दर्शाया गया है:
क्रम संख्या | निबंध संग्रह का नाम | प्रकाशन वर्ष |
---|---|---|
1 | निबंध-सरस्वती | 1871 |
2 | प्रयाग-महोत्सव | 1877 |
3 | भारतवर्ष | 1878 |
4 | बाल-विनोद | 1879 |
5 | सहित्य-पत्रिका | 1879-1880 |
6 | हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका | 1882 |
7 | हरिश्चन्द्र-मंजूषा | 1882 |
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के निबंधों में समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और साहित्यिक विषयों पर विचार व्यक्त किए गए हैं। इनमें से ‘निबंध-सरस्वती’ उनका प्रथम निबंध संग्रह था। ‘प्रयाग-महोत्सव’ में उन्होंने प्रयाग कुम्भ मेले के अवसर पर लिखे गए निबंधों को संग्रहित किया है। ‘भारतवर्ष’ भारत देश से संबंधित निबंधों का संग्रह है।
उनके निबंधों में राष्ट्रीय चेतना, नारी शिक्षा, धर्म सुधार, समाज सुधार, साहित्यिक विचार आदि विषयों पर विचार किए गए हैं। ये निबंध उनकी विचारधारा और दृष्टिकोण को समझने में सहायक हैं।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रमुख काव्य कृतियों है:
क्रम संख्या | काव्य कृति का नाम | विधा | प्रकाशन वर्ष |
---|---|---|---|
1 | प्रेम-सागर | महाकाव्य | 1876 |
2 | प्रेम-पत्र | काव्य-नाटक | 1876 |
3 | आनंद-कानन | काव्य संग्रह | 1882 |
4 | हरिश्चन्द्र-बाण | काव्य संग्रह | 1885 |
5 | रत्नावली | काव्य संग्रह | 1887 |
6 | भारत-भारती | स्तवन काव्य | अप्रकाशित |
7 | विद्या-सुन्दर | काव्य नाटक | अप्रकाशित |
‘प्रेम-सागर’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का सर्वप्रथम महाकाव्य है, जिसमें वीर रस और शृंगार रस का सुन्दर समन्वय है। ‘प्रेम-पत्र’ एक काव्य नाटक है, जिसमें पत्र शैली में ही संवाद चलते हैं।
‘आनंद-कानन’ और ‘हरिश्चन्द्र-बाण’ उनके काव्य संग्रह हैं, जिनमें छोटी-छोटी कविताएँ संग्रहीत हैं। ‘रत्नावली’ में भी उनकी कविताओं का संग्रह है।
‘भारत-भारती’ एक स्तवन काव्य है, जिसमें भारत माता की स्तुति की गई है। ‘विद्या-सुन्दर’ एक और काव्य नाटक है, जो अप्रकाशित रहा।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कविताओं में राष्ट्रीय भावना, नैतिक मूल्य, समाज सुधार आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। उनकी काव्य रचनाएँ हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
- उनका असली नाम वासुदेव था। ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी, जिसका अर्थ है ‘भारत का चंद्रमा’।
- वे कानपुर में अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने वाले प्रथम व्यक्तियों में से एक थे।
- उन्होंने हिन्दी का पहला उपन्यास ‘बिहारी सतसई’ लिखा, जो अब लुप्त हो चुका है।
- उन पर बंगाली साहित्य का गहरा प्रभाव था, और उन्होंने कई बंगाली उपन्यासों का अनुवाद भी किया।
- उन्होंने ‘सम्वत् सुधावर्षक’ नामक पत्रिका का संपादन किया।
- उनका नाटक ‘नीलदेवी’ बहुत लोकप्रिय हुआ और कई बार मंचित किया गया।
- वे एक बौद्धिक समूह ‘हरिश्चन्द्र सभा’ के संस्थापक थे।
- वे केवल 34 वर्ष की आयु में ही 1885 में कलकत्ता में मृत्यु को प्राप्त हुए।
- इस प्रकार, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन कई अनजाने और रोचक पहलुओं से भरा हुआ था, जो उनकी व्यक्तिगत और साहित्यिक यात्रा को और अधिक रोचक बनाता है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बारे में लोगों द्वारा पूछे जाने वाले कुछ प्रमुख प्रश्न :
प्रश्न: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म कहां और कब हुआ था?
उत्तर: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 1850 में बिहार के वैशाली जिले के प्रसिद्ध व्यापारी परिवार में हुआ था।
प्रश्न: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का मुख्य उद्देश्य हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास करना तथा समाज सुधार और राष्ट्रीय चेतना जगाना था।
प्रश्न: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रमुख रचनाएं कौन सी हैं?
उत्तर: उनकी प्रमुख रचनाएं ‘भारत-दुर्दशा’ नाटक, ‘प्रेम-सागर’ महाकाव्य, ‘निबंध-सरस्वती’ निबंध संग्रह आदि हैं।
प्रश्न: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को किस उपाधि से नवाजा गया था?
उत्तर: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ‘काव्य-रत्न’ की उपाधि से नवाजा गया था।
प्रश्न: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के किन योगदानों के लिए उन्हें ‘हिन्दी साहित्य के पितामह’ कहा जाता है?
उत्तर: हिन्दी नाटक, उपन्यास, काव्य और निबंध साहित्य को नई दिशा देने तथा खड़ी बोली हिन्दी के प्रचार-प्रसार के योगदान के लिए उन्हें ‘हिन्दी साहित्य के पितामह’ कहा जाता है।
प्रश्न: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की मृत्यु कब और कहां हुई थी?
उत्तर: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की मृत्यु 6 जनवरी 1885 को कलकत्ता में हुई थी। वे केवल 34 वर्ष की आयु में ही चल बसे थे।
इस प्रकार, उनके जीवन, कार्यों और योगदानों से संबंधित प्रश्नों के माध्यम से हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को बेहतर समझ सकते हैं।
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